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कविता

इश्क़

इस क़दर हम तुम्हारे ग़ुलाम हो गए,
हमारे चर्चे भी सरे आम हो गए।
पलकों के साये में तुम्हें ऐसे छुपाया,
एक झलक के लिए क़त्ल-ए-आम हो गए।
हुआ हमपे इश्क़ का ऐसा असर,
न अपनी क़दर, न किसी की ख़बर।
ख़्वाबों में तुम, निग़ाहों में तुम,
सिर्फ़ तुम दिखो, मुझे हर पहर।
सुन के जानेमन मुझे चैन आ गया,
हुस्न की तलब भी अब तमाम हो गयी।
वो ख़ूबसूरत शमां, वो हसीन आलम,
जो मिले तुम, तो जस्न-ए-शाम हो गयी।

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