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कविता

जिन्दगी और लाचार लोग


क्या है ज़िन्दगी, कैसी है जिंदगी; समझना थोड़ा मुश्किल है,
कितने ही अड़चनो के बाद भी कहती है; हारो मत, तुम्हें जीना है;
सकारात्मकता इस कदर तब्दील है।

क्या कुछ नहीं सिखाती है, जीने का मक़सद बताती है,
निर्लज्ज मनुष्यों के लाख कोसने के बाद भी समझाती है,
मूर्ख इन्सान; यह वक़्त समस्याओं से भागने का नहीं है, जबरन उसे सुलझाने का है,
मौका है तुम्हारे पास, वक़्त है तुम्हारे पास कह कर बार-बार हौसला बढ़ाती है।

बार-बार याद दिलाती है तुम्हें धरती पर बोझ नहीं बनना है,
जीने के बहुत मकसद है, उन्हें पूरा करना है है।
जरुरामन्दों की मदद करना है, लोगों के दर्द समझना है,
उनकी समस्याओं को सुलझाना है, उनके लिए प्रेरणा बनना है।

परन्तु यह सब मनुष्यों को कहाँ समझ आता है
उन्हें समस्याओं से भागना और ज़िन्दगी को कोसना ज्यादा भाता है,
सुबह मजदूरी करता है, शाम को रंडी-रोना, रात में सो जाता है,
उन्हें ज़िन्दगी का बस यही मतलब समझ आता है।

यही लोग बस भगवान से अच्छी ज़िन्दगी की प्रार्थना करते हैं,
समस्याओं से भागते हैं और बड़ी बड़ी वासना करते हैं,
उन्हें पता नहीं कि वे इस पावन धरती पर भी नरक सी ज़िंदगी जीते हैं,
उन्हें कहाँ परवाह वर्तमान की,
वे सारी ज़िन्दगी केवल मरने के बाद स्वर्ग की कामना करते हैं।
मेरे विचार से पढ़े लिखे अनपढ़ इन्हें ही कहते हैं।

दुनिया बदल जाये पर ये नहीं बदलते हैं,
हजार बार गिरने के बाद भी नहीं सम्भलते हैं,
दिखावे की पूजा अर्चना करते हैं,
अन्तर्मन में केवल ईर्ष्या और द्वेष रखते हैं,
समझ नहीं आता ये खुद को बेबकूफ बनाते हैं या ज़िन्दगी को बेबकूफ समझते हैं।

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