Categories
कविता

दर्द-ए-दिल

हर सितम भूलकर तुम्हारे उल्फ़त के ख़्वाब सजाती थी।
हंसती थी मुस्कुराती थी, दरअसल दिल के जख़्म छुपाती थी।
छुप-छुप कर रोती थी, और तुम्हें हंस कर दिखाती थी।
मोहब्बत का परवान तो देखो, इतने सितम के बाद भी मुस्तफ़ा कह कर बुलाती थी।
उल्फ़त ने मुझे ऐसे मोड़ पे ला खड़ा किया था।
ऐसा लग रहा था मैंने ख़ुद से ही ख़ुद को अगुवा किआ था।
खुशियों के मंज़र लगने से पहले ही क़यामत ने मुझे इत्तला किआ था।
जिस हमराही के साथ मैंने ज़न्नत की राह तक़ी थी, उसने ही मुझे ग़ुमराह किआ था।

_श्रुति सोना

13 replies on “दर्द-ए-दिल”

Leave a Reply