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कविता

चलते चले

पत्थर की सी राहों में,
यूँ ठोकर खाते चलते चले।

मिले कई मानुष अनजाने में,
कुछ कठोर दिल तो कुछ बहुत भले।

सब यादें समेट मुट्ठी में,
सबको गले लगाते चलते चले।

कभी धूप, कभी छाँव, हर मौसम में,
हम हंसते-मुस्कुराते चलते चले।

कल्पनाओं से भरी दुनिया में,
कुछ ख़्वाब सजाते चलते चले।

कुछ कर जाने की ख्वाहिश में,
डर को डराते चलते चले।

मुक़ाम पाने की हसरत में,
पथ से पत्थर हटाते चलते चले।

इक ख़ुशी लाने की ज़िद्द में,
हर ग़म को ठुकराते चलते चले।

इक सफलता की उम्मीद में,
हर मुश्किल उठाते चलते चले।

कुछ ख़्वाब लिए एक बस्ते में,
पत्थर में राह बनाते चलते चले।

इस रास्ते भर की ज़िंदगी में,
कुछ सपनों को मरता देख चलते चले।
इस रास्ते भर की ज़िंदगी में,
कुछ सपनों को पूरा करते चलते चले।

इस रास्ते भर की ज़िंदगी में,
कभी डरकर कभी डटकर चलते चले।
इस रास्ते भर की ज़िंदगी में,
पथिक बनकर बस चलते चले।

21 replies on “चलते चले”

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