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कविता

एक ओर सत्ताधारी , दूसरी ओर बेबसी-लाचारी

हाथ बांध ऊपर बैठा देखो सत्ताधारी,
व्याकुल हो तड़प रही है नीचे जनता सारी,
आँख बंद कर देख रहा सब वह अन्यायी अविचारी,
मज़दूरों के पाँव छिल गये, आ गयी दीनता भारी,
दावानल चरम पर है,
मिट्टी तक खाने को विवश हो गये हैं लाचारी,
कैसा है निष्ठुर,
वर्दी पहने बेबस को कुचल रहा अधिकारी।

माँ की ममता टूट चुकी है,
बच्चों का बलिदान हो चला,
पानी-पानी कहते मर रहे सब,
पर उनकी सुनता कौन भला,
गर्भवती बच्चे खो रही,
उस बच्चे का क्या जो अनाथ हो चला,
मरने लगे मानवता जहां,
क्या विपत्ति कभी टली वहाँ?

बैठ कुर्सी पर वह,
अपने नीचता का प्रमाण दे रहा।
जो थक-हार अंत में अपने गाँव को पैदल चल दिए,
बेशर्मी की हद तो देखो, उसको आत्मनिर्भर का नाम दे रहा।

समर का एलान समझ इसे, ऐ दुष्ट और उसके अनुयायी,
यह प्रतिशोध की ज्वाला भड़की है,
जब अगणित हृदय ने दी है दुहाई।

याद रख तूने दुर्बल दरिद्र को सताया है,
अभी तुझे ज्ञान नहीं तूने स्वयं संकट को बुलाया है,
आज तप रहा समस्त संसार है,
तूने स्वयं समर का यह अग्नि जलाया है।

बुझा सको तो बुझा दो आग,
छोड़ द्वेष, ईर्ष्या और मोह, दो घूँट पीयूष का पिला दो आज।
है समय, बचा सको तो बचा लो अपनी और अपने देश की लाज।
पहचानो निज कर्म तुम,
छोड़ो राज भोग का लोभ, छोड़ो धर्म का राग।

22 replies on “एक ओर सत्ताधारी , दूसरी ओर बेबसी-लाचारी”

Maine apki kavitayen padhi, bahut acchi and aaj ke time ke anurup hain yani prasangik hain. Yah bhi jankari google search se hui ki aap content writing business se bhi judi hui hain. Please apne website me yah bhi batayen ki delhi se out stat, as Bihar ke writer ke liye kaise possible hai ? Ok ! Thanks !

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