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कविता

क्यूँ जाते हैं हम मैखाने

यूँ हीं कोई नहीं पीता है शराब

अगर ज़िन्दगी का स्वाद हो शराब से ख़राब
ऐसे मनहूस वक़्त में शराब होता है जान

जब ज़िन्दगी में हो तड़प बेहिसाब
ये सराब होता है तन्हाई का साथ

हो जाए ज़िन्दगी जब इस क़दर बरबाद
ख़ुदा क़सम ये शराब होता है इकलौता प्यार

जब घुटता है दम ज़ीने में
तब असली मज़ा है शराब पीने में

जब पाते हैं ख़ुद को तन्हा बार-बार
ये शराब लाता है ज़िन्दगी में बहार

कब तक कोई ग़म में जियेगा
आख़िर में वो शराब ही पियेगा

बहुत सुने हमने उल्फ़त के अफ़साने
बहुत सुने हमने तन्हाई के गाने
चलते हैं अब सराबखाने
ज़िन्दगी के ग़म भुलाने
इस तन्हापन को मिटाने
दुनियां को ये समझाने
क्यूं जाते हैं हम हर रोज़ मैख़ाने।।

20 replies on “क्यूँ जाते हैं हम मैखाने”

*कोई हुनर , कोई राज , कोई राह , कोई तो तरीका बताओ….*

*दिल टूटे भी न, साथ छूटे भी न , कोई रूठे भी न , और ज़िन्दगी गुजर जाए।*

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