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कविता

तलब

एक तलब सी थी तुम्हें पाने की,
तुम्हारे लब्जों को छू जाने की,
तुम्हारे साँसोंमें बस जाने की,
तुम्हारे वक़्त को चुराने की।
पर ये सब तो बस मेरी चाहत थी मेरी तलब थी,
दरअसल, हकीक़त तो कुछ अलग थी।
अचानक मेरी ज़िन्दगी ने रुख़ बदला,
मेरे तुम्हारे बीच बहुत कुछ बदला।
जाने क्यों औऱ कहाँ से एक झोंका आया,
औऱ मुझे ये समझ आया,
की अब तलब नहीं मुझे तुम्हें पाने की,
शायद तलब थी तुम्हें छोड़ जाने की,
कहीं दूर तलक चले जाने की।
लेकिन मेरे इस ख़्याल से मैं खुश नहीं थी,
ये ख़्याल मुझे अंदर ही अंदर चुभ रहे थे,
आँखों में आँसू नहीं थे, पर ज़िन्दगी ग़मज़दा सी थी।
मेरे ख़्याल कुछ और कह रहे थे, मेरे एहसास कुछ और कह रहे थे।
मेरे जज़्बात मुझे बेचैन कर रहे थे।
मैं उलझी बेचैन तुम्हारे सामने पड़ी थी,
पर तुम्हें मेरी कोई क़दर नहीं थी।
मैं तुम्हारे पास होकर भी तुम्हारी नहीं थी,
ये बात मेरे ज़हन में बहुत चुभ रही थी।
मेरे अंदर बहुत से ख़्याल चल रहे थे,
आख़िर वो झोंका क्या था,
जो तुम्हें मुझसे दूर ले चला था।
मैं तुम्हें सब बताना चाहती थी,
पर शायद मैं इस काबिल नहीं थी,
आख़िर इसलिए मैं इन जज़्बातों को पन्नों में क़ैद कर रही थी।
या ख़ुदा मैं तेरे रहम को तरस रही थी।।

14 replies on “तलब”

काफ़िरा बन जाता है इन एहसास की थोड़ी सी कसक मिल जाने से । और ज़िन्दगी यूँही मुस्कुराती है हमें जलाने को।

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