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कविता

उससे ही सब मनसूब

कौम न पूछी, रूप न देखा, बस देखा उसका नूर,
कर बैठी उसके रूह से मुहब्बत, उससे ही सब मनसूब,
तमन्ना उसकी भी थी, चर्चे भी थे खूब,
इश्क़ का मंजर था, शर्तें भी थी उसे मंजूर।
मत पूछो फिर क्या हुआ,
जब ये जोड़ा जुदा हुआ,
ज़िन्दगी में ऐसा अँधेरा हुआ,
तकिये के सिवा न कोई मेरा हुआ।
वीरानी हो गयी थी ज़िंदगी, न जेहन में थी कोई प्यास,
तन्हा बैठी सोचती रहती, बचा क्या अब खास
न मैं खुद की रही, न कोई और था मेरे पास,
खुमारी ऐसी की किसी और की भी न थी तालाश।

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