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कविता

वो चाँद सा शीतल, मैं सूरज का ताप हूँ

वो चाँद सा शीतल,
मैं सूरज का ताप हूँ।
वो शर्द की धूप,
मैं सुलग़ती हुई आग हूँ।

वो नीरस सा मनुष्य,
मैं उसके तबस्सुम का राज़ हूँ।
वो मेरे ख्वाबों का शहंशाह,
मैं ही उसका ताज हूँ।

वो पवित्र है जल सा,
मैं पानी सा दिखने वाला तेज़ाब हूँ।
वो स्थिर सा जल है,
मैं कोई बहता सैलाब हूँ।

वो मधुर सी तान,
मैं कोई कड़वी अल्फ़ाज़ हूँ।
वो सुलझा हुआ इंसान,
मैं उलझी कोई अनजान हूँ।

वो मेरे नज़्मों की वजह,
मैं उसकी ज़िंदगी का राज़ हूँ।
वो मेरे होठों की हंसी,
मैं उसके गम का साथ हूँ।

वो मेरी ज़िन्दगी का सवेरा,
मैं उसकी हसीन रात हूँ।
वो मेरी रातों की नींद,
मैं उसके दिन की शुरुआत हूँ।

वो मेरी पहली मुहब्बत,
मैं उसकी आख़िरी साँस हूँ।।

14 replies on “वो चाँद सा शीतल, मैं सूरज का ताप हूँ”

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